Aankh Ki Kirkiri (Hindi)

Fiction & Literature, Anthologies, Literary Theory & Criticism
Cover of the book Aankh Ki Kirkiri (Hindi) by Rabindranath Tagore, Sai ePublications & Sai Shop
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Author: Rabindranath Tagore ISBN: 9781310706585
Publisher: Sai ePublications & Sai Shop Publication: July 1, 2014
Imprint: Smashwords Edition Language: Hindi
Author: Rabindranath Tagore
ISBN: 9781310706585
Publisher: Sai ePublications & Sai Shop
Publication: July 1, 2014
Imprint: Smashwords Edition
Language: Hindi

विनोद की माँ हरिमती महेंद्र की माँ राजलक्ष्मी के पास जा कर धरना देने लगी। दोनों एक ही गाँव की थीं, छुटपन में साथ खेली थीं।

राजलक्ष्मी महेंद्र के पीछे पड़ गईं - 'बेटा महेंद्र, इस गरीब की बिटिया का उद्धार करना पड़ेगा। सुना है, लड़की बड़ी सुंदर है, फिर पढ़ी-लिखी भी है। उसकी रुचियाँ भी तुम लोगों जैसी हैं।

महेंद्र बोला - 'आजकल के तो सभी लड़के मुझ जैसे ही होते हैं।'

राजलक्ष्मी- 'तुझसे शादी की बात करना ही मुश्किल है।'

महेंद्र - 'माँ, इसे छोड़ कर दुनिया में क्या और कोई बात नहीं है?'

महेंद्र के पिता उसके बचपन में ही चल बसे थे। माँ से महेंद्र का बर्ताव साधारण लोगों जैसा न था। उम्र लगभग बाईस की हुई, एम.ए. पास करके डॉक्टरी पढ़ना शुरू किया है, मगर माँ से उसकी रोज-रोज की जिद का अंत नहीं। कंगारू के बच्चे की तरह माता के गर्भ से बाहर आ कर भी उसके बाहरी थैली में टँगे रहने की उसे आदत हो गई है। माँ के बिना आहार-विहार, आराम-विराम कुछ भी नहीं हो पाता।

अबकी बार जब माँ विनोदिनी के लिए बुरी तरह उसके पीछे पड़ गई तो महेंद्र बोला, 'अच्छा, एक बार लड़की को देख लेने दो!'

लड़की देखने जाने का दिन आया तो कहा, 'देखने से क्या होगा? शादी तो मैं तुम्हारी खुशी के लिए कर रहा हूँ। फिर मेरे अच्छा-बुरा देखने का कोई अर्थ नहीं है।'

महेंद्र के कहने में पर्याप्त गुस्सा था, मगर माँ ने सोचा, 'शुभ-दृष्टि'1 के समय जब मेरी पसंद और उसकी पसंद एक हो जाएगी, तो उसका स्वर भी नर्म हो जाएगा।

  1. बंगाल में विवाह के पहले लड़का-लड़की परस्पर एक-दूसरे को देखते हैं। यह रिवाज है। यही 'शुभ-दृष्टि' है।

राजलक्ष्मी ने बेफिक्र हो कर विवाह का दिन तय किया। दिन जितना ही करीब आने लगा, महेंद्र का मन उतना ही बेचैन हो उठा। मात्र दो-चार दिन पहले वह कह बैठा- 'नहीं माँ, यह मुझसे हर्गिज न होगा।'

छुटपन से महेंद्र को हर तरह का सहारा मिलता रहा है। इसलिए उसकी इच्छा सर्वोपरि है। दूसरे का दबाव उसे बर्दाश्त नहीं। अपनी स्वीकृति और दूसरों के आग्रह ने उसे बेबस कर दिया है, इसीलिए विवाह के प्रस्ताव के प्रति नाहक ही उसकी वितृष्णा बढ़ गई और विवाह का दिन नजदीक आ गया तो उसने एकबारगी 'नाही' कर दी।

महेंद्र का दिली दोस्त था बिहारी; वह महेंद्र को 'भैया' और उसकी माँ को 'माँ' कहा करता था। माँ उसे स्टीमर के पीछे जुड़ी डोंगी-जैसा भारवाही सामान मानती थीं और वैसी ही उस पर ममता भी रखती थीं। वे बिहारी से बोलीं - 'बेटे, यह तो अब तुम्हें ही करना है, नहीं तो उस बेचारी लड़की... '

बिहारी ने हाथ जोड़ कर कहा - 'माँ, यह मुझसे न होगा। अच्छी न लगी कह कर महेंद्र जो मिठाई छोड़ देता है वह मैंने बहुत खाई, मगर लड़की के बारे में ऐसा नहीं हो सकता।'

राजलक्ष्मी ने सोचा, 'भला बिहारी विवाह करेगा! उसे तो बस एक महेंद्र की पड़ी है, बहू लाने का खयाल भी नहीं आता उसके मन में।' यह सोच कर बिहारी के प्रति उनकी कृपा-मिश्रित ममता कुछ और बढ़ गई।

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विनोद की माँ हरिमती महेंद्र की माँ राजलक्ष्मी के पास जा कर धरना देने लगी। दोनों एक ही गाँव की थीं, छुटपन में साथ खेली थीं।

राजलक्ष्मी महेंद्र के पीछे पड़ गईं - 'बेटा महेंद्र, इस गरीब की बिटिया का उद्धार करना पड़ेगा। सुना है, लड़की बड़ी सुंदर है, फिर पढ़ी-लिखी भी है। उसकी रुचियाँ भी तुम लोगों जैसी हैं।

महेंद्र बोला - 'आजकल के तो सभी लड़के मुझ जैसे ही होते हैं।'

राजलक्ष्मी- 'तुझसे शादी की बात करना ही मुश्किल है।'

महेंद्र - 'माँ, इसे छोड़ कर दुनिया में क्या और कोई बात नहीं है?'

महेंद्र के पिता उसके बचपन में ही चल बसे थे। माँ से महेंद्र का बर्ताव साधारण लोगों जैसा न था। उम्र लगभग बाईस की हुई, एम.ए. पास करके डॉक्टरी पढ़ना शुरू किया है, मगर माँ से उसकी रोज-रोज की जिद का अंत नहीं। कंगारू के बच्चे की तरह माता के गर्भ से बाहर आ कर भी उसके बाहरी थैली में टँगे रहने की उसे आदत हो गई है। माँ के बिना आहार-विहार, आराम-विराम कुछ भी नहीं हो पाता।

अबकी बार जब माँ विनोदिनी के लिए बुरी तरह उसके पीछे पड़ गई तो महेंद्र बोला, 'अच्छा, एक बार लड़की को देख लेने दो!'

लड़की देखने जाने का दिन आया तो कहा, 'देखने से क्या होगा? शादी तो मैं तुम्हारी खुशी के लिए कर रहा हूँ। फिर मेरे अच्छा-बुरा देखने का कोई अर्थ नहीं है।'

महेंद्र के कहने में पर्याप्त गुस्सा था, मगर माँ ने सोचा, 'शुभ-दृष्टि'1 के समय जब मेरी पसंद और उसकी पसंद एक हो जाएगी, तो उसका स्वर भी नर्म हो जाएगा।

  1. बंगाल में विवाह के पहले लड़का-लड़की परस्पर एक-दूसरे को देखते हैं। यह रिवाज है। यही 'शुभ-दृष्टि' है।

राजलक्ष्मी ने बेफिक्र हो कर विवाह का दिन तय किया। दिन जितना ही करीब आने लगा, महेंद्र का मन उतना ही बेचैन हो उठा। मात्र दो-चार दिन पहले वह कह बैठा- 'नहीं माँ, यह मुझसे हर्गिज न होगा।'

छुटपन से महेंद्र को हर तरह का सहारा मिलता रहा है। इसलिए उसकी इच्छा सर्वोपरि है। दूसरे का दबाव उसे बर्दाश्त नहीं। अपनी स्वीकृति और दूसरों के आग्रह ने उसे बेबस कर दिया है, इसीलिए विवाह के प्रस्ताव के प्रति नाहक ही उसकी वितृष्णा बढ़ गई और विवाह का दिन नजदीक आ गया तो उसने एकबारगी 'नाही' कर दी।

महेंद्र का दिली दोस्त था बिहारी; वह महेंद्र को 'भैया' और उसकी माँ को 'माँ' कहा करता था। माँ उसे स्टीमर के पीछे जुड़ी डोंगी-जैसा भारवाही सामान मानती थीं और वैसी ही उस पर ममता भी रखती थीं। वे बिहारी से बोलीं - 'बेटे, यह तो अब तुम्हें ही करना है, नहीं तो उस बेचारी लड़की... '

बिहारी ने हाथ जोड़ कर कहा - 'माँ, यह मुझसे न होगा। अच्छी न लगी कह कर महेंद्र जो मिठाई छोड़ देता है वह मैंने बहुत खाई, मगर लड़की के बारे में ऐसा नहीं हो सकता।'

राजलक्ष्मी ने सोचा, 'भला बिहारी विवाह करेगा! उसे तो बस एक महेंद्र की पड़ी है, बहू लाने का खयाल भी नहीं आता उसके मन में।' यह सोच कर बिहारी के प्रति उनकी कृपा-मिश्रित ममता कुछ और बढ़ गई।

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